Wednesday, February 12, 2020

सोचता हूँ के इधर ज़िन्‍दगी कैसी होगी

हिज्र के साथ कभी वस्ल अगर अपनी होगी
जानता हूँ ये मुलाक़ात भी अच्छी होगी

वो है एहसान फ़रामोश मैं एहसान शनास
उसकी दुनिया में मेरी पैठ ही कितनी होगी

जी रहा शौक से जी हाँ ये मगर याद रहे
ज़ीस्त के साथ चली मौत भी आती होगी

अच्‍छा ख़ासा था अभी हो जो गया मैं शाइर
सोचता हूँ के इधर ज़िन्‍दगी कैसी होगी

एक ग़ाफ़िल पे ये एहसाने क़रम हो के न हो
लोग कहते हैं कभी जानेमन अपनी होगी

-‘ग़ाफ़िल’

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