Tuesday, May 24, 2016

बुत कोई यूँ न तराशा जाए

वो बताए तो भला क्या जाए
पास मेरे वो अगर आ जाए

मुझको बोले हो अगर आने को
उसको भी यार बुलाया जाए

दिक्कतें मैंने सहीं छोड़ो भी
क्यूँ ज़माने को लपेटा जाए

आशिक़ी तो है इबादत यारो
क्यूँ न इस तर्ह भी सोचा जाए

ख़ूब हो पर न हो महबूब का अक्स
बुत कोई यूँ न तराशा जाए

मुझको तारीफ़ की चाहत न ज़रा
पर न यूँ हो के न देखा जाए

काम ग़ाफ़िल न करो यूँ के तुम्हें
हर तरफ़ से ही लताड़ा जाए

-‘ग़ाफ़िल’

No comments:

Post a Comment