Wednesday, January 04, 2017

उल्फत की रह में आग का दर्या ज़ुरूर है

लेकिन नहीं है शम्स, उजाला ज़ुरूर है
देखे न देखे कोई, तमाशा ज़ुरूर है

ये गुल बग़ैर ख़ुश्बू के ही खिल रहे जो अब
इनका भी ज़र से हो न हो रिश्ता ज़ुरूर है

तुझसे भी नाज़ लेकिन उठाया नहीं गया
बज़्मे तरब में आज तू आया ज़ुरूर है

मत पूछ यह के जी है भटकता कहाँ कहाँ
गो मेरा जिस्म उसका घरौंदा ज़ुरूर है

हासिल करूँगा फिर भी किसी तर्ह मैं मुक़ाम
उल्फत की रह में आग का दर्या ज़ुरूर है

है आख़िरी उड़ान यही सोच और उड़
मंज़िल जो तुझको अबके ही पाना ज़ुरूर है

ग़ाफ़िल न मिल सका है अभी तक मुझे सुक़ून
कहते हैं तेरे दर पे ये मिलता ज़ुरूर है

-‘ग़ाफ़िल’


No comments:

Post a Comment