हुस्न शायद जो मुझे हासिल नहीं
ख़ूब है पर इसका मुस्तक़्बिल नहीं
जानता है ख़ासियत उल्फ़त की क्या
इस समन्दर का कोई साहिल नहीं
देखने को नाज़नीनों में है सब
और देने को ज़रा भी दिल नहीं
आ नहीं सकता कोई तेरे सिवा
यह मेरा दिल है तेरी महफ़िल नहीं
क्या ज़ुरूरी है के पा ही लूँ तुझे
तू मुक़द्दर है मेरी मंज़िल नहीं
कुछ इशारा ही कर ऐ हुस्न इश्क़ के
तू नहीं क़ाबिल के मैं क़ाबिल नहीं
मंज़िले उल्फ़त अभी ग़ाफ़िल तुझे
लग रही मुश्किल है पर मुश्किल नहीं
-‘ग़ाफ़िल’
(मुस्तक़्बिल=भविष्य)
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