Monday, April 24, 2017

सोचता हूँ के अगर जाऊँगा तो क्या लेकर

होते फिर शे’र मेरे क़ाफ़िया क्या क्या लेकर
बात बन जाती लुगत का जो सहारा लेकर

लिख दिया मैंने अभी एक अजूबा सी हज़ल
कह दो तो पढ़ दूँ यहाँ नाम ख़ुदा का लेकर

एक क़त्आ-

वैसे तो जी में मेरे आप अब आने से रहे
और मालूम है आएँगे भी तो क्या लेकर
फिर भी आ जाइए है रात गुज़रने वाली
वास्ते मेरे भले दर्द का गट्ठा लेकर

और तमाम अश्आर-

जैसे अरमानों का बाज़ार हुआ जी अपना
औ ख़रीदार खड़े ढेर सा पैसा लेकर

सोचता हूँ के मेरी भूख की शिद्दत में कभी
काश आ जाए कोई लिट्टी-ओ-चोखा लेकर

क्या था रंगीन सफ़र जाम भी टकराया था
वैसे निकला था मैं बस थोड़ा सा भूजा लेकर

होने ही चाहिए अश्आर हमेशा हल्के
ताके जाना न पड़े झाड़ में लोटा लेकर

कोई तारीफ़ नहीं कोई मलामत भी नहीं
सोचता हूँ के अगर जाऊँगा तो क्या लेकर

आईना ठीक ही कहता है के आ जाते हो क्यूँ
आप ग़ाफ़िल जी वही चेहरा बना सा लेकर

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-04-2017) को

    "जाने कहाँ गये वो दिन" (चर्चा अंक-2623)
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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