मान लेना न यह के पक्का है
आदमी आदमी का रिश्ता है
यूँ तो लाखों गिले हैं ज़ेरे जिगर
कौन तेरा है कौन मेरा है
इश्क़ की क्या नहीं है ये तौहीन
दिल सुलगता है और तड़पता है
पुख़्ता हूँ ख़ूब ज़िस्मो जान से मैं
हादिसों से जो मेरा नाता है
न डरेगा भी तो डराएगी
कुछ इसी ही सिफ़त की दुनिया है
देख रुख़ पर मेरे है दाग़ तो क्या
चाँद भी वाक़ई कुछ ऐसा है
गोया होता हूँ मैं वही ग़ाफ़िल
आईना रंग क्यूँ बदलता है
-‘ग़ाफ़िल’
आदमी आदमी का रिश्ता है
यूँ तो लाखों गिले हैं ज़ेरे जिगर
कौन तेरा है कौन मेरा है
इश्क़ की क्या नहीं है ये तौहीन
दिल सुलगता है और तड़पता है
पुख़्ता हूँ ख़ूब ज़िस्मो जान से मैं
हादिसों से जो मेरा नाता है
न डरेगा भी तो डराएगी
कुछ इसी ही सिफ़त की दुनिया है
देख रुख़ पर मेरे है दाग़ तो क्या
चाँद भी वाक़ई कुछ ऐसा है
गोया होता हूँ मैं वही ग़ाफ़िल
आईना रंग क्यूँ बदलता है
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-04-2017) को
ReplyDelete"लोगों का आहार" (चर्चा अंक-2616)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत बढ़िया
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