जैसे भी चाहे कोई वैसे रहे
जब तलक ज़़े़े़े़ेरे जिगर मेरे रहे
हो चुका है गर ज़माना ग़ैर का
आप भी तो अब कहाँ अपने रहे
ठीक है डंडे जमाओ इश्क़ पर
हुस्न भी लेकिन शराफ़त से रहे
मस्त है अपनी ही धुन में हर कोई
किसको समझाए कोई कैसे रहे
झंड है ग़ाफ़िल जी अपनी ज़िन्दगी
हम न घर के ही न बाहर के रहे
-‘ग़ाफ़िल’
जब तलक ज़़े़े़े़ेरे जिगर मेरे रहे
हो चुका है गर ज़माना ग़ैर का
आप भी तो अब कहाँ अपने रहे
ठीक है डंडे जमाओ इश्क़ पर
हुस्न भी लेकिन शराफ़त से रहे
मस्त है अपनी ही धुन में हर कोई
किसको समझाए कोई कैसे रहे
झंड है ग़ाफ़िल जी अपनी ज़िन्दगी
हम न घर के ही न बाहर के रहे
-‘ग़ाफ़िल’
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