रूबरू होने पे क्यूँ ऐसा लगा
है मिजाज़े आईना बिगड़ा हुआ
आईना करता नहीं गोया गिला
सामने उसके मगर अच्छे से आ
टूटने का दौर है मौला ये क्या
लग रहा जो हर बशर टूटा हुआ
था नहीं इसका गुमाँ मुझको ज़रा
मेरा ही दिल एक दिन देगा दगा
चल रहा था वस्ल का ज्यूँ सिलसिला
एक दिन होना ही होना था ज़ुदा
था शरारा इश्क़ का ज़ेरे जिगर
वो ही शायद आज बन शोला उठा
फिर नये पत्ते निकल आएँगे ही
फिर बहार आएगी इतना है पता
मेरी आसानी परेशानी न पूछ
चल रहा मौसम अभी तक हिज़्र का
होंगे आशिक़ और तेरे, शह्र में
पर नहीं होगा कोई मुझसा फ़िदा
हुस्न को परवा नहीं जब है मेरी
हुस्न की परवाह मुझको क्यूँ भला
पी के जो मै लोग शाइर हो गए
मैं भी तो इक घूँट उसको हूँ पिया
रख दिया कुछ हर्फ़ ग़ाफ़िल, बह्र में
बोलिए क्या शे’र मेरा भी हुआ
-‘ग़ाफ़िल’
लाजवाब
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