मुझे तू भूल जाता है मुझे अच्छा नहीं लगता
मैं रहता हूँ तेरे दिल में तुझे यह क्या नहीं लगता?
निग़ाहे लुत्फ़ तेरा है उधर रुख़ है इधर ऐसे
मुहब्बत आज़माना क्या तमाशा सा नहीं लगता?
मैं वापस आ ही जाता हूँ वहीं चलता जहाँ से हूँ
ये रस्ता प्यार का दर तक तेरे जाता नहीं लगता
तू होता है जो ग़मगीं रू मेरा भी ज़र्द होता है
फिर अपने बीच तुझको क्यूँ कोई रिश्ता नहीं लगता
घुला हो ज़ह्र कितना भी तेरी शोख़े बयानी में
मैं पी जाता हूँ हँस हँस कर मुझे तीखा नहीं लगता
रक़ीबों पर क़रम तेरा न मेरी जाँ पे आ जाए
तू मेरा है मगर अक़्सर मुझे मेरा नहीं लगता
तेरे आते ही ग़ाफ़िल बज़्म में आ जाती है रौनक़
बताना सच के तुझको क्या कभी ऐसा नहीं लगता?
-‘ग़ाफ़िाल’
यहां क्लिक करें और पढ़ें यह ग़ज़ल अमर उजाला दैनिक पर
मैं रहता हूँ तेरे दिल में तुझे यह क्या नहीं लगता?
निग़ाहे लुत्फ़ तेरा है उधर रुख़ है इधर ऐसे
मुहब्बत आज़माना क्या तमाशा सा नहीं लगता?
मैं वापस आ ही जाता हूँ वहीं चलता जहाँ से हूँ
ये रस्ता प्यार का दर तक तेरे जाता नहीं लगता
तू होता है जो ग़मगीं रू मेरा भी ज़र्द होता है
फिर अपने बीच तुझको क्यूँ कोई रिश्ता नहीं लगता
घुला हो ज़ह्र कितना भी तेरी शोख़े बयानी में
मैं पी जाता हूँ हँस हँस कर मुझे तीखा नहीं लगता
रक़ीबों पर क़रम तेरा न मेरी जाँ पे आ जाए
तू मेरा है मगर अक़्सर मुझे मेरा नहीं लगता
तेरे आते ही ग़ाफ़िल बज़्म में आ जाती है रौनक़
बताना सच के तुझको क्या कभी ऐसा नहीं लगता?
-‘ग़ाफ़िाल’
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प्रणाम सर बहुत बहुत शुक्रिया
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