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सुब्ह तो है ही शाम भी है क्या
बात अपनी के आख़िरी है क्या
कोई बतलाए तो मुझे अक़्सर
आईने में वो खोजती है क्या
आईने में वो खोजती है क्या
लुत्फ़ आया तो पर न जज़्ब हुई
यह कहानी नई नई है क्या
उसके ही हाथ की लकीरों में
किस्मत अपनी भी खो गई है क्या
पा गया था मैं राह में थी पड़ी
सच बता यह सदी तेरी है क्या
कोई हंगामा हो के लुत्फ़ आए
ज़िन्दगी यह भी ज़िन्दगी है क्या
है ख़लिश तो इक अपने ज़ेरे जिगर
ग़ाफ़िल अब यह भी दिल्लगी है क्या
-‘ग़ाफ़िल’
>> सियाहे-जू को भी कभी दस्ती में छुपा रखिए..,
ReplyDeleteक़लम को भी इल्म हो के लबे-तिश्नगी है क्या.....
जू = नदी
दस्ती = कलमदानी