Monday, April 11, 2016

होता ग़ाफ़िल तो क्या नहीं होता

घर किसी का बसा नहीं होता
प्यार गर कुछ रहा नहीं होता

जिस क़दर राह रोक रक्खे हो
इश्क़ यूँ भी अता नहीं होता

ज़िन्दगी के हज़ार नख़रे हैं
पर कोई आप सा नहीं होता

बात चल दी तो चलती जाएगी
गोया के उसके पा नहीं होता

मै तो पीता हूँ पर तज़ुर्बा है
इश्क़ जैसा नशा नही होता 

पास तो सब हैं फिर भी लगता है
होता ग़ाफ़िल तो क्या नहीं होता

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-04-2016) को "ज़िंदगी की किताब" (चर्चा अंक-2310) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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