Monday, April 30, 2018

ख़ुद ख़ुद को रास्ते का तमाशा बना लिया

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ग़ाफ़िल है तेरे इश्क़ का ऐसा नशा के मैं
ख़ुद ख़ुद को रास्ते का तमाशा बना लिया
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एक आत्मीय से आज ही हुई सहज वार्ता का प्रतिफलन कविता के साँचे में-

न राधा न मीरा
इनसे तो है मेरी वह ग़ज़ल वाली ही सही...
वही,
जिस पर मेरे तमाम अश्आर हैं निछावर,
जो है मेरी चाहतों का महावर

...अरे नहीं वह मेरी ग़ज़लों की मलिका है
वह बड़ी ख़ूबसूरत है
मुझे उसकी उसे मेरी ज़ुरूरत है
वह मेरे तसव्वुर की अल्पना है
वह मेरी कल्पना है

जिस रूप में, जिस रंग में, जहाँ सोचता हूँ मैं उसे
ठीक वैसे ही
वहीं सामने में आ खड़ी होती है वह मेरे
बिना परवाह किए किसी नदी, जंगल, पहाड़ व सहरा की

हम दोनों एक दूसरे को गलबहियाँ डाले पर्वतों की पगडंडियों पर चलते हुए अनायास न जाने कबतक बादलों के बगुलों को गिनते रहते हैं फिर थककर किसी देवदार नीचे बैठ स्वयं को विलीन कर देते हैं एक दूजे में
तब
न वह होती है न मैं होता हूँ... बस होते हैं मेरे अश्आर

-‘ग़ाफ़िल’

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