Sunday, August 19, 2018

मेरे हिस्से की मुझको दे ज़माने

आदाब दोस्तो! एक ग़ज़ल ऐसी भी हुई मतलब एक ही क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र में सब क़त्आ ही-

पहला क़त्आ मयमतला-

"लगेगा हुस्न जब भी आज़माने
लगे सर किसका देखो किसके शाने
है फिर भी जिसके पास उल्फ़त की दौलत
वो आएगा ज़ुरूर उसको लुटाने"

दूसरा क़त्आ-

"ये शोख़ी यह अदा यह बाँकपन यह
सुरो संगीत ये मीठे तराने
करेगा क्या तू इतनी इश्रतों का
मेरे हिस्से की मुझको दे ज़माने"

तीसरा क़त्आ-

"मनाने का हुनर आता नहीं फिर
बताना तू ही जब आऊँ मनाने
बहरहाल आ भले ख़्वाबों में ही आ
किसी भी तौर कोई भी बहाने"

चौथा क़त्आ मयमक़्ता-

"मनाएँ क्यूँ न हम त्योहार जब भी
फ़सल कट जाए घर आ जाएँ दाने
अजल है ज़ीस्त का होना मुक़म्मल
तू ग़ाफ़िल ऐसे माने या न माने"

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २० अगस्त २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  2. आदरणीय सर--- यूँ तो पूरी रचना लाजवाब है पर इन पंक्तियों ने मन को छू लिया -
    "लगेगा हुस्न जब भी आज़माने
    लगे सर किसका देखो किसके शाने
    है फिर भी जिसके पास उल्फ़त की दौलत
    वो आएगा ज़ुरूर उसको लुटाने"!!!!!! वाह और सिर्फ वाह !!!!!!!

    दू
    -

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