Friday, July 24, 2015

अरे हुस्न वालों ये क्या माज़रा है

न कोई है शिक़्वा न कोई सिला है
अरे हुस्न वालों ये क्या माज़रा है

मुझे क्या पता था मुझे मार देगा
निगाहों का तेरे जो ख़ंजर चला है

हुआ तो हुआ पर हुआ क्या यहाँ जो
थी बरसात होनी कुहासा हुआ है

मिरे खेत में अब न बरसेंगी ऐसा
फुहारों ने शायद किया फ़ैसला है

मिले यार सच्चा तो यूँ भी समझ ले
ज़माने की इश्रत तुझे ही अता है

हुआ एक अर्सा मुझे पौध रोपे
बड़ा नकचढ़ा फूल है अब खिला है

मिरे दिल के हर जख़्म से जाने जाना
नहीं मैं कहूँगा तेरा राब्ता है

कली की सदा कौन सुनता है ग़ाफ़िल
उसे तोड़कर देख सेह्रा सजा है

-'ग़ाफ़िल'

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-06-2015) को "व्यापम और डीमेट घोटाले का डरावना सच" {चर्चा अंक-2048} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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