मुझपे वह जाँ निसार करता है।
यूँ मुझे शर्मसार करता है।।
खेँच लेता है ख़ून रग रग से,
वक़्त जब भी शिकार करता है।
रख लिया मुझको हाशिए पे सही,
कितना एहसान यार करता है।
आईना देखकर मेरी सूरत,
रोज़ चीखो पुकार करता है।
याद आकर वो क्यूँ शबे हिज़्राँ,
जी मेरा बेक़रार करता है।
सो जा ग़ाफ़िल न अब वो आएगा,
तू जिसका इंतज़ार करता है।।
-‘ग़ाफ़िल’
यूँ मुझे शर्मसार करता है।।
खेँच लेता है ख़ून रग रग से,
वक़्त जब भी शिकार करता है।
रख लिया मुझको हाशिए पे सही,
कितना एहसान यार करता है।
आईना देखकर मेरी सूरत,
रोज़ चीखो पुकार करता है।
याद आकर वो क्यूँ शबे हिज़्राँ,
जी मेरा बेक़रार करता है।
सो जा ग़ाफ़िल न अब वो आएगा,
तू जिसका इंतज़ार करता है।।
-‘ग़ाफ़िल’
खेँच लेता है ख़ून रग रग से,
ReplyDeleteवक़्त जब भी शिकार करता है।
सच बिल्कुल सच
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-07-2015) को "घिर-घिर बादल आये रे" (चर्चा अंक- 2027) (चर्चा अंक- 2027) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह...वाह..बहुत खूब सर।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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