Saturday, July 25, 2015

ज़ेब कोई सिली नहीं होती

गर ये तेरी कही नहीं होती
बात इतनी लगी नहीं होती

होश आया तो यह ख़याल आया
ज़िन्दगी मैकशी नहीं होती

बातों बातों में रूठना तेरा
यूँ सनम आशिक़ी नहीं होती

मुझसे जलता नहीं कोई भी तू जो
मुस्कुराकर मिली नहीं होती

आखों में तू न यूँ ठहरती मेरे
तो मेरी किरकिरी नहीं होती

छू के तेरा बदन जो आती नहीं
यूँ हवा संदली नहीं होती

जाम होंटों का जो पिया तो लगा
मैकशी भी बुरी नहीं होती

आज ग़ाफ़िल को यूँ न बहका तू
ज़ेब कोई सिली नहीं होती

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments: