अब दुश्वार है जीसस बनना
गया रिवाज़ सलीबों वाला
ख़ारेपन से बच जाता गर
सागर थोड़ा भी रो लेता
सर्पिल सी इक पगडण्डी से
काश! के फिर बन पाता रिश्ता
अब वह शायद टूट चुकी है
जिस टहनी पर चाँद टँगा था
लौट आओगे तब न दिखेगा!
बूढ़ा पीपल बाट जोहता
लगने लगा अब ख़्वाब मुझे क्यूँ
ओरी छप्पर पानी झरता
ग़ाफ़िल गौरइयों के चूजे
कोटर वाला साँप खा गया
-‘ग़ाफ़िल’
गया रिवाज़ सलीबों वाला
ख़ारेपन से बच जाता गर
सागर थोड़ा भी रो लेता
सर्पिल सी इक पगडण्डी से
काश! के फिर बन पाता रिश्ता
अब वह शायद टूट चुकी है
जिस टहनी पर चाँद टँगा था
लौट आओगे तब न दिखेगा!
बूढ़ा पीपल बाट जोहता
लगने लगा अब ख़्वाब मुझे क्यूँ
ओरी छप्पर पानी झरता
ग़ाफ़िल गौरइयों के चूजे
कोटर वाला साँप खा गया
-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआभार अनीता जी
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-07-2017) को रविकर वो बरसात सी, लगी दिखाने दम्भ; चर्चामंच 2655 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
ReplyDeleteआभार वंदना जी
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया रिंकी जी
Delete