झलक रहा है ऐसे गौहर
ज्यूँ पेशानी पर श्रमसीकर
बुन सकता हूँ मैं ज्यूँ रिश्ता
ख़ाक बुनेगा वैसा बुनकर
जो था तुझमें तू, ग़ायब है
लौटा है क्या ख़ाक कमाकर
दाग रहे सब शे’र शे’र पर
जान बचे अब शायद सोकर
ग़ाफ़िल रात रात भर चन्दा
क्या पाया टहनी पर टँगकर
-‘ग़ाफ़िल’
ज्यूँ पेशानी पर श्रमसीकर
बुन सकता हूँ मैं ज्यूँ रिश्ता
ख़ाक बुनेगा वैसा बुनकर
जो था तुझमें तू, ग़ायब है
लौटा है क्या ख़ाक कमाकर
दाग रहे सब शे’र शे’र पर
जान बचे अब शायद सोकर
ग़ाफ़िल रात रात भर चन्दा
क्या पाया टहनी पर टँगकर
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16-07-2017) को "हिन्दुस्तानियत से जिन्दा है कश्मीरियत" (चर्चा अंक-2668) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'