है लगे आज रुकेगा वो मगर जाता है
क्या पता है के कहाँ सुब्ह क़मर जाता है
लोग आते हैं चले जाते है कर तन्हा मुझे
तू तो रुक जाए इधर यार किधर जाता है
आया है करने जो आबाद मेरे दिल का नगर
उसको तो रुकना ही था देखिए पर जाता है
इस क़दर चाहने वाला है मेरा भी कोई
जाम खाली न हुआ और वो भर जाता है
बाद दीदार के तेरे है अजब ये होता
आईना देख मुझे ख़ुद ही सँवर जाता है
हूँ तो ग़ाफ़िल ही मगर तुझसे तो इस तर्ह नहीं
के मेरे नाम पे जैसे तू बिफर जाता है
-‘ग़ाफ़िल’
क्या पता है के कहाँ सुब्ह क़मर जाता है
लोग आते हैं चले जाते है कर तन्हा मुझे
तू तो रुक जाए इधर यार किधर जाता है
आया है करने जो आबाद मेरे दिल का नगर
उसको तो रुकना ही था देखिए पर जाता है
इस क़दर चाहने वाला है मेरा भी कोई
जाम खाली न हुआ और वो भर जाता है
बाद दीदार के तेरे है अजब ये होता
आईना देख मुझे ख़ुद ही सँवर जाता है
हूँ तो ग़ाफ़िल ही मगर तुझसे तो इस तर्ह नहीं
के मेरे नाम पे जैसे तू बिफर जाता है
-‘ग़ाफ़िल’
बहुत सुन्दर कविता है
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (13-07-2017) को "पाप पुराने धोता चल" (चर्चा अंक-2665) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'