ख़ुद का ख़ुद ही मुख़्तार बना
यूँ ग़ाफ़िल भी सरदार बना
यह दुनिया फ़ख़्र करे तुझ पर
ऐसा अपना किरदार बना
मन-मुटाव जो काट-छाँट दे
ऐसी ख़ासी तलवार बना
गुल कब तक साथ निभाएँगे
तू इक दो साथी ख़ार बना
सच है बस समझ के बाहर है
के है प्यार भी कारोबार बना
मैं ग़ाफ़िल हूँ नासमझ नहीं
जा और किसी को यार बना
-‘ग़ाफ़िल’
यूँ ग़ाफ़िल भी सरदार बना
यह दुनिया फ़ख़्र करे तुझ पर
ऐसा अपना किरदार बना
मन-मुटाव जो काट-छाँट दे
ऐसी ख़ासी तलवार बना
गुल कब तक साथ निभाएँगे
तू इक दो साथी ख़ार बना
सच है बस समझ के बाहर है
के है प्यार भी कारोबार बना
मैं ग़ाफ़िल हूँ नासमझ नहीं
जा और किसी को यार बना
-‘ग़ाफ़िल’
वाह, गाफिल साहब सरदार बन गये आज तो,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (31-07-2017) को "इंसान की सच्चाई" (चर्चा अंक 2682) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इन पंक्तियों के लिये बधाई !
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