माना के मुहब्बत में तक़रार ज़ुरूरी है
पर हार मेरी ही क्यूँ हर बार ज़ुरूरी है
हो इश्क़ भले कितना लेकिन मेरी जाने जाँ
आँखों से ही हो चाहे इज़्हार ज़ुरूरी है
मरना है मुअय्यन पर मरने के लिए भी तो
ता’उम्र हमें जीना सरकार ज़ुरूरी है
तुमको हो पता क्यूँकर है चीज़ मुहब्बत जो
हम सबके लिए कितना ऐ यार ज़ुरूरी है
हमको भी ज़रा कोई समझा तो दे आख़िर क्यूँ
अश्आरों में नफ़्रत का व्यापार ज़ुरूरी है
दौलत भी और अज़्मत भी क्या क्या न दिया रब ने
क्या उसका नहीं बोलो आभार ज़ुरूरी है
जी तो हैं रहे सारे पर शौकतो इश्रत से
जीने के लिए ग़ाफ़िल घर बार ज़ुरूरी है
-‘ग़ाफ़िल’
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