तीरगी जब है जेह्नो जिगर में
रौशनी बोलो कैसे हो घर में
कैसी डाली नज़र तूने यारा
अब नहीं फूल आते शजर में
फिर भुला पाएगा ख़ाक मुझको
तू बसा पहले दिल के नगर में
डूबता जा रहा हूँ सरापा
है क़शिश कुछ तो इस चश्मे तर में
इश्रतें वस्ले शब् की डुबोया
जी का तूफ़ान फिर दोपहर में
फूटता इश्क़ का ठीकरा है
क्यूँ मेरे सर ही अक़्सर शहर में
कब तलक यूँ रहूँगा मैं ग़ाफ़िल
आ ही जाऊँगा इक दिन बहर में
-‘ग़ाफ़िल’
रौशनी बोलो कैसे हो घर में
कैसी डाली नज़र तूने यारा
अब नहीं फूल आते शजर में
फिर भुला पाएगा ख़ाक मुझको
तू बसा पहले दिल के नगर में
डूबता जा रहा हूँ सरापा
है क़शिश कुछ तो इस चश्मे तर में
इश्रतें वस्ले शब् की डुबोया
जी का तूफ़ान फिर दोपहर में
फूटता इश्क़ का ठीकरा है
क्यूँ मेरे सर ही अक़्सर शहर में
कब तलक यूँ रहूँगा मैं ग़ाफ़िल
आ ही जाऊँगा इक दिन बहर में
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (17-01-2018) को सारे भोंपू बेंच दे; (चर्चामंच 2851) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका
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