Sunday, January 14, 2018

है क़शिश कुछ तो इस चश्मे तर में

तीरगी जब है जेह्नो जिगर में
रौशनी बोलो कैसे हो घर  में

कैसी डाली नज़र तूने यारा
अब नहीं फूल आते शजर में

फिर भुला पाएगा ख़ाक मुझको
तू बसा पहले दिल के नगर में

डूबता जा रहा हूँ सरापा
है क़शिश कुछ तो इस चश्मे तर में

इश्रतें वस्ले शब् की डुबोया
जी का तूफ़ान फिर दोपहर में

फूटता इश्क़ का ठीकरा है
क्यूँ मेरे सर ही अक़्सर शहर में

कब तलक यूँ रहूँगा मैं ग़ाफ़िल
आ ही जाऊँगा इक दिन बहर में

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (17-01-2018) को सारे भोंपू बेंच दे; (चर्चामंच 2851) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!

    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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