रिझाने सामयीं को जब कभी बाहर निकलते हैं
मेरे अश्आर तब मुझसे भी सज-धज कर निकलते हैं
बड़े ही मनचले आँसू हैं इन पर बस भला किसका
ख़ुशी के पल हों तो आँखों से ये अक़्सर निकलते हैं
यही तो लुत्फ़ है चलता है यूँ ही खेल क़ुद्रत का
निकलते जाँसिताँ हैं कुछ तो कुछ जाँबर निकलते हैं
मुझे तो कम ही लगता है निकलना यह मगर फिर भी
मेरे अरमान गोया आजकल शब् भर निकलते हैं
यही देखा गया है जब भी आती मौत है उनकी
तभी ग़ाफ़िल जी चींटों चींटियों के पर निकलते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
मेरे अश्आर तब मुझसे भी सज-धज कर निकलते हैं
बड़े ही मनचले आँसू हैं इन पर बस भला किसका
ख़ुशी के पल हों तो आँखों से ये अक़्सर निकलते हैं
यही तो लुत्फ़ है चलता है यूँ ही खेल क़ुद्रत का
निकलते जाँसिताँ हैं कुछ तो कुछ जाँबर निकलते हैं
मुझे तो कम ही लगता है निकलना यह मगर फिर भी
मेरे अरमान गोया आजकल शब् भर निकलते हैं
यही देखा गया है जब भी आती मौत है उनकी
तभी ग़ाफ़िल जी चींटों चींटियों के पर निकलते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
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