Sunday, July 15, 2018

हम निभाते न फ़क़त ढेर सा वादा करते

रोज़ तन्हाई में क्या चाँद निहारा करते
हम जो तुझको न बुलाते तो भला क्या करते

रंज़ो ग़म पीरो अलम गर न सुनाते अपना
हमको लगता है के हम ख़ुद से ही धोखा करते

हमको मालूम तो था तेरी कही का मानी
तेरी सुनते के तेरे दर पे तमाशा करते

एक क़त्आ-

हम न कह पाए के है कौन हमारा क़ातिल
नाम क्या लेके तुझे शह्र में रुस्वा करते
रोज़ ही क़ब्र से जाता तू हमारे होकर
हम तुझे काश के हर रोज़ ही देखा करते

अपनी उल्फ़त की उन्हें भी जो ख़बर हो जाती
इल्म क्या है के ये अह्बाब ही क्या क्या करते

गुंचे खिलते हैं कहाँ वैसे बिखर जाते हैं
करते तो किससे हम इस बात का शिक़्वा करते

चाँद इक रोज़ चुरा लाने को बोले तो थे पर
चाँद सबका है भला कैसे हम ऐसा करते

क्या ये वाज़िब था के नेताओं के जैसे ग़ाफ़िल
हम निभाते न फ़क़त ढेर सा वादा करते

-‘ग़ाफ़िल’

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