तौफ़ीक़ में है चाह के यह भी शुमार हो
हो नाज़नीन कोई उसे हमसे प्यार हो
गर है तो फिर सुबूत भी होने का दे ख़ुदा
नाले हों चिल्ल पों हो कुछ आँधी बयार हो
कुछ ख़ास हो नहीं तो सफ़र का है लुत्फ़ क्या
हों फूल गर न राह में गर्दो ग़ुबार हो
फिर क्या करे गिला ही कोई चाहकर भी गर
हो चाँद रात छत पे हो पहलू में यार हो
ग़ाफ़िल सड़ा सड़ा सा ये मौसम न ले ले जान
अब लग ही जाए आग या फ़स्ले बहार हो
-‘ग़ाफ़िल’
हो नाज़नीन कोई उसे हमसे प्यार हो
गर है तो फिर सुबूत भी होने का दे ख़ुदा
नाले हों चिल्ल पों हो कुछ आँधी बयार हो
कुछ ख़ास हो नहीं तो सफ़र का है लुत्फ़ क्या
हों फूल गर न राह में गर्दो ग़ुबार हो
फिर क्या करे गिला ही कोई चाहकर भी गर
हो चाँद रात छत पे हो पहलू में यार हो
ग़ाफ़िल सड़ा सड़ा सा ये मौसम न ले ले जान
अब लग ही जाए आग या फ़स्ले बहार हो
-‘ग़ाफ़िल’
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