Monday, July 16, 2018

अब लग ही जाए आग या फ़स्ले बहार हो

तौफ़ीक़ में है चाह के यह भी शुमार हो
हो नाज़नीन कोई उसे हमसे प्यार हो

गर है तो फिर सुबूत भी होने का दे ख़ुदा
नाले हों चिल्ल पों हो कुछ आँधी बयार हो

कुछ ख़ास हो नहीं तो सफ़र का है लुत्फ़ क्या
हों फूल गर न राह में गर्दो ग़ुबार हो

फिर क्या करे गिला ही कोई चाहकर भी गर
हो चाँद रात छत पे हो पहलू में यार हो

ग़ाफ़िल सड़ा सड़ा सा ये मौसम न ले ले जान
अब लग ही जाए आग या फ़स्ले बहार हो

-‘ग़ाफ़िल’

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