Monday, July 30, 2018

तुझे ऐ ख़ुदा सोचना चाहता हूँ

आदाब दोस्तो! पेशे ख़िदमत है आज की ही हुई एक ऐसी ग़ज़ल जो होते होते अचानक इबादत हो गई-

तुझे क्या बताऊँ के क्या चाहता हूँ
हमेशा को तेरा हुआ चाहता हूँ

न सह पा रहा हूँ तेरा अब तग़ाफ़ुल
वही फिर मैं शिक़्वा गिला चाहता हूँ

वफ़ाई ज़फ़ाई परे कर दिया पर
तेरा लुत्फ़ ख़ुद में ज़रा चाहता हूँ

जहाँ है मुझे बस तसव्वुर में ले ले
कहाँ अब तेरा मैं पता चाहता हूँ

हूँ जाहिल नहीं गो मगर फिर भी तेरे
गये रास्ते पर चला चाहता हूँ

फ़ना तो है होना मगर उसके पहले
तुझे ऐ ख़ुदा सोचना चाहता हूँ

भले ही कहें लोग ग़ाफ़िल मुझे पर
ग़ज़ल आज तुझ पर कहा चाहता हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ३० जुलाई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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