Saturday, October 24, 2015

उधर रस्मे दुनिया इधर आशिक़ी है

अजब कशमकश में मेरी ज़िन्दगी है
उधर रस्मे दुनिया इधर आशिक़ी है

बता यह के बोसा मैं लूँ भी तो कैसे
तेरे रुख़ पे नागिन जो लट लोटती है

तेरा मुस्कुराकर नज़र का मिलाना
जिगर पे जूँ मीठी सी छूरी चली है

चल आ दूँ दिला आईने की गवाही
किया क़त्ल मेरा जो बस तू वही है

तेरे चश्मे मासूम में जाने जाना
कोई चीज़ ख़ंजर सी अक़्सर दिखी है

ये क्या है के कहते हो ग़ाफ़िल तुम्हारी
ग़ज़ल ही हुई है के इक फुलझड़ी है

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment: