हर्फ़ जो ज़ह्र से हो गये
सब मिरे वास्ते हो गये
देखते देखते या ख़ुदा!
ख़्वाब कितने बड़े हो गये
घर मिरा जल गया भी तो क्या
आसमाँ के तले हो गये
फिर यक़ीनन बहार आएगी
ज़ख़्म मेरे हरे हो गये
बाग में एक गुल क्या खिला
सैकड़ों मनचले हो गये
दिल जुड़ा तो किसी से मगर
हिज़्र के सिलसिले हो गये
राहते जाँ मयस्सर कहाँ
दरमियाँ फ़ासिले हो गये
मंज़िलें नागमणि सी हुईं
साँप से रास्ते हो गये
कीजिए मेरे दिल पे रहम
आप फिर सामने हो गये
चाँद को देख ग़ाफ़िल तो क्या
अब्र भी बावरे हो गये
-‘ग़ाफ़िल’
सब मिरे वास्ते हो गये
देखते देखते या ख़ुदा!
ख़्वाब कितने बड़े हो गये
घर मिरा जल गया भी तो क्या
आसमाँ के तले हो गये
फिर यक़ीनन बहार आएगी
ज़ख़्म मेरे हरे हो गये
बाग में एक गुल क्या खिला
सैकड़ों मनचले हो गये
दिल जुड़ा तो किसी से मगर
हिज़्र के सिलसिले हो गये
राहते जाँ मयस्सर कहाँ
दरमियाँ फ़ासिले हो गये
मंज़िलें नागमणि सी हुईं
साँप से रास्ते हो गये
कीजिए मेरे दिल पे रहम
आप फिर सामने हो गये
चाँद को देख ग़ाफ़िल तो क्या
अब्र भी बावरे हो गये
-‘ग़ाफ़िल’
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-10-2015) को "चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज" (चर्चा अंक-2125) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मंज़िलें नागमणि सी हुईं
ReplyDeleteसाँप से रास्ते हो गये
- एकदम मौलिक उद्भावना !