Tuesday, October 06, 2015

तुम्हें लो आ गया जी इश्क़ से इंकार करना भी

मुझे तो अब तलक आया नहीं इज़हार करना भी
तुम्हें लो आ गया जी इश्क़ से इंकार करना भी

हुए कुछ यूँ ज़माने में समझते हैं ज़ुरूरी जो
गुज़रती पुरसुक़ूँ हर ज़िन्दगी दुश्वार करना भी

मज़ा हो के वो मुझको सोच ले मगरूर आशिक़ है
अदाओं से ज़ुरूरी है इसे लाचार करना भी

क़फ़स में इश्क़ तड़पे हुस्न भी है सात पहरे में
रहा मुमक़िन नहीं अब यार का दीदार करना भी

बड़ा दुश्वार है, दौरे रवाँ में हर मुसन्निफ़ को
महज़ शीरीं ज़ुबाँ में इक ग़ज़ल तय्यार करना भी

सभी ग़ाफ़िल पे तो उँगली उठाते हैं मगर सच है
के है आसाँ नहीं उस सा नया क़िरदार करना भी

-‘ग़ाफ़िल’

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