जो भी दिखते काले काले हैं साहिब
सारे मेरे तन के छाले हैं साहिब
किसको है मालूम कि हम इन हाथों से
चावल भूसी साथ उबाले हैं साहिब
रात गयी सो बात गयी की तर्ज़ पे हम
सह सह करके सदियां टाले हैं साहिब
तीरे नज़र चलाकर फिर मुस्का देना
आपके ये अंदाज़ निराले हैं साहिब
आप लड़ाओ पेंच न हमको पता चले
क्या हम इतने भोले भाले हैं साहिब
ग़ाफ़िल को चलना ही केवल सिखला दो
उड़ने को यूँ भी परवाले हैं साहिब
-’ग़ाफ़िल’
सारे मेरे तन के छाले हैं साहिब
किसको है मालूम कि हम इन हाथों से
चावल भूसी साथ उबाले हैं साहिब
रात गयी सो बात गयी की तर्ज़ पे हम
सह सह करके सदियां टाले हैं साहिब
तीरे नज़र चलाकर फिर मुस्का देना
आपके ये अंदाज़ निराले हैं साहिब
आप लड़ाओ पेंच न हमको पता चले
क्या हम इतने भोले भाले हैं साहिब
ग़ाफ़िल को चलना ही केवल सिखला दो
उड़ने को यूँ भी परवाले हैं साहिब
-’ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-08-2015) को "ये राखी के धागे" (चर्चा अंक-2083) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
भाई-बहन के पवित्र प्रेम के प्रतीक
रक्षाबन्धन के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्री जी
Deleteबहुत सुह्दर गजल
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया भारती जी
Deleteशुक्रिया रस्तोगी जी
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