Thursday, September 10, 2015

पर लगे, है ज़ुदा नहीं कोई

आज तक तो मिला नहीं कोई
पर लगे, है ज़ुदा नहीं कोई

तुझको पाऊँ या जान से जाऊँ
और अब रास्ता नहीं कोई

साँस चल तो रही है पर मुझको
बिन तेरे फ़ाइदा नहीं कोई

वक़्त रूठा तो हट गयी दुनिया
आज अपना रहा नहीं कोई

इक समन्दर की आह के आगे
अब तलक तो टिका नहीं कोई

जी जले और मुस्कुराऊँ मैं
यूँ भी ग़ाफ़िल हुआ नहीं कोई

-‘ग़ाफ़िल’

4 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-09-2015) को "हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने से परहेज क्यों?" (चर्चा अंक-2096) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. उत्कृष्ट प्रस्तुति

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