Friday, September 11, 2015

रह के पत्थर से अक्सर टकराते है

तेरे कूचे में जब भी हम जाते हैं
राह के पत्थर से अक्सर टकराते है

ख़ामख़याली के बाइस ही पिटते सब
वर्ना याँ तो पत्थर पूजे जाते हैं

एक कमाए दस खाएं की आदत है
इसी लिए हम रिश्ते ख़ूब निभाते हैं

कम जोतो पर अधिक हेंगाओ के जैसे
हमको ढेरों सबक सिखाए जाते हैं

हुआ क़ाफ़िया तंग बहुत अपना यारो
मज़्बूरी में जश्ने शाम मनाते हैं

एक सुहागा सोने पर सा लगता है
हमको जब ग़ाफ़िल कह लोग बुलाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

No comments:

Post a Comment