यूँ राहे ज़ीस्त में इंसान गर सच्चा निकलता है
उसे है कारवाँ मिलता भले तन्हा निकलता है
मेरी पुरख़ार राहें एक दिन फूलों भरी होंगी
पता है ख़ार में भी किस तरह गुंचा निकलता है
किया क्या ग़ौर इस पर भी किसी ने क्यूँ है ऐसा के
निकलता चाँद मश्रिक़ से है जब पूरा निकलता है
जहाँ में इश्क़ का दीया है जब भी बुझ रहा होता
किसी मीरा दीवानी का वो गोपाला निकलता है
बहुत था दर्द दिल में साथ जब तू थी नहीं मेरे
तेरे आने से देखूं दर्द अब कितना निकलता है
तुझे क्यूँ फ़िक़्र है तीरे नज़र का वार जिस पर की
वही ग़ाफ़िल, जो तेरे दर से मुस्काता निकलता है
-‘ग़ाफ़िल’
उसे है कारवाँ मिलता भले तन्हा निकलता है
मेरी पुरख़ार राहें एक दिन फूलों भरी होंगी
पता है ख़ार में भी किस तरह गुंचा निकलता है
किया क्या ग़ौर इस पर भी किसी ने क्यूँ है ऐसा के
निकलता चाँद मश्रिक़ से है जब पूरा निकलता है
जहाँ में इश्क़ का दीया है जब भी बुझ रहा होता
किसी मीरा दीवानी का वो गोपाला निकलता है
बहुत था दर्द दिल में साथ जब तू थी नहीं मेरे
तेरे आने से देखूं दर्द अब कितना निकलता है
तुझे क्यूँ फ़िक़्र है तीरे नज़र का वार जिस पर की
वही ग़ाफ़िल, जो तेरे दर से मुस्काता निकलता है
-‘ग़ाफ़िल’
No comments:
Post a Comment