Saturday, September 26, 2015

बिना आशिक़ हुए आवारगी अच्छी नहीं लगती

न दर्दे हिज़्र हो तो आशिक़ी अच्छी नहीं लगती
बिना आशिक़ हुए आवारगी अच्छी नहीं लगती

गुज़र जाता है हर इक सह्न से टेढ़ा किए मुँह जूँ
रक़ीबों को कभी मेरी ख़ुशी अच्छी नहीं लगती

बिना संज़ीदगी के काम कोई हो नहीं सकता
मगर हर बात में संज़ीदगी अच्छी नहीं लगती

मिरे गर रू-ब-रू हो चाँद भी तो अब्र के पर्दे
मुझे हर हाल में बेपर्दगी अच्छी नहीं लगती

नदी ख़ुद रोज़ आकर प्यास तो मेरी बुझा दे पर
मुझे इस मिस्ल भी दरियादिली अच्छी नहीं लगती

अगर है तिश्नगी तो ज़ब्त कर ले तू क़रीने से
नहीं मालूम क्या तश्नालबी अच्छी नहीं लगती

है मुझमें हिम्मते आग़ाज़ राहे नौ बना लूँगा
मुझे तो राह भी गुज़री हुई अच्छी नहीं लगती

भले तुह्‌मत लगे ग़ाफ़िल ज़माने से हुआ ग़ाफ़िल
मगर अख़्लाक़ पर तुह्‌मत लगी अच्छी नहीं लगती

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-09-2015) को "सीहोर के सिध्द चिंतामन गणेश" (चर्चा अंक-2111) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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