Tuesday, September 08, 2015

सुकूँ के दो निवाले से मेरा बेजोड़ नाता है

अदब से आजकल जब भी कोई मुझको बुलाता है
न जाने क्यूँ मुझे अहसास होता है, बनाता है

अँधेरों से कहो के बोरिया बिस्तर समेटें अब
नही मालूम क्या मंज़र? दीया जब जगमगाता है

क़लम मेरी किसी कमज़र्फ़ शौकत पर न चल जाए
जो ख़ुद है ज़िश्तरू मुझको वही शीशा दिखाता है

हँसी तब और आती है कोई दौरे रवाँ में भी
मुझे तफ़्सील से जब इश्क़ की ख़ूबी गिनाता है

ग़रज़ इतनी ही के बेहोश को बस होश आ जाए
ग़ज़ब है लुत्फ़ आरिज़ पर कोई आँसू गिराता है

ज़माने भर की दौलत से भला क्या वास्ता ग़ाफ़िल
सुकूँ के दो निवाले से मेरा बेजोड़ नाता है

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments: