Tuesday, September 01, 2015

इस तरह ख़ुद को सताने से भला क्या हासिल

बात सीने में दबाने से भला क्या हासिल
इस तरह ख़ुद को सताने से भला क्या हासिल

एक सैलाब भी है प्यास भी तो ज़ाहिर है
आँख अब और चुराने से भला क्या हासिल

होश को जोश गर आ जाय तो मुमक़िन है सब
जोश में होश गवाने से भला क्या हासिल

आईना ख़ूब ही जाने है हक़ीक़त तेरी
उसको बन ठनके रिझाने से भला क्या हासिल

जाम होंटों का कोई चख के यही सोचेगा
मै को अब हाथ लगाने से भला क्या हासिल

इश्क़ नेमत है अगर यह न हुआ हासिल तो
सोच ग़ाफ़िल है ज़माने से भला क्या हासिल

-‘ग़ाफ़िल’

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